अजय भट्टाचार्य
आज तक के कार्यक्रम में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के प्रबोधन से यह साफ हुआ है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम और नागरिक पंजीयन रजिस्टर (एनआरसी) से देशवासियों को किसी तरह के शक-सुबहे की जरुरत नहीं है। जितने तीखे सवाल पूछे जाने चाहिए थे, वे उनसे पूछे गए और उनका जवाब भी उन्होंने अपनी सुविधानुसार तर्कों सहित दिया। लगभग एक सप्ताह से इस मुद्दे पर विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के बीच अमित शाह के जवाब आश्वस्त करते हैं कि अधिनियम के कारण भारत के किसी भी नागरिक की जाति, धर्म, वर्ण, भाषा के आधार नागरिकता पर कोई आंच नहीं आएगी। संबंधित कानून भारत से लगे पड़ोसी देशों में रह रहे वहां के अल्पसंख्यकों को उनके देश में उत्पीडन के कारण पलायन की स्थिति में भारत में शरण देने के साथ-साथ नागरिकता देकर उन्हें सम्मानपूर्ण जीवन जीने का रास्ता साफ़ करता है। जाहिर है जसमें कोई खोट निकालना राजनय के लिहाज से उचित नहीं है। अब सवाल यह उठता है कि इस कानून को लेकर भ्रम की स्थिति उत्पन्न होने के कारण क्या हैं? सीधा उत्तर है खुद सरकार इसके लिए जिम्मेदार है। जितनी बातें आज तक के मंच पर गृहमंत्री ने कहीं वे बातें कानून बनने के तुरंत बाद सरकार अपने प्रसार प्रचार विभाग के जरिये कर सकती थी, पर नहीं किया। चाहते तो खुद अमित शाह कानून को लेकर जो भ्रम हो सकते थे उन पर अपना स्पष्टीकरण दे सकते थे। जब देश धधक उठा तब इस स्पष्टीकरण के औचित्य पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। खुद गृहमंत्री ने और अपने मातहतों के जरिये नागरिकता संशोधन बिल राज्यसभा में पेश करने से पहले 160 संगठनों और 600-700 लोगों से मुलाकात कर इस बारे में बातचीत की थी। इसके बावजूद इतने बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शनों का क्या अर्थ है। यह रायशुमारी सिर्फ असम और पूर्वोत्तर के एकाध राज्य में की गई। जबकि इस पर देश भर में भी रायशुमारी की जा सकती थी तो शायद यह स्थिति उत्पन्न नहीं होती जो आज है। अब शाह कह रहे है कि यदि कोई सुझाव हों तो दिए जा सकते हैं और जरुरत हुई तो उन्हें कानून में भी जगह मिल सकती है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार के किसी भी निर्णय पर साम्प्रदायिक नजरिये से क्यों देखा जाता है, इस पर भी स्पष्टीकरण सरकार को ही देना चाहिए। क्यों देश के कुछ वर्गों को लगता है कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है। यही कारण है कि एनआरसी को लेकर भी शंकाओं की लंबी श्रंखला है। सबसे प्रमुख यह कि नागरिक अपनी नागरिकता कैसे सिद्ध करे? जो मानदंड हैं वे इतने संवेदनशील हैं कि भारत की बड़ी आबादी इसकी चपेट में आ सकती है। मीडिया विजिल की एक रिपोर्ट के अनुसार इस कानून का सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव जिन लोगों पर पड़ेगा वे तो अभी तक इससे अनजान हैं। इतिहास की शुरुआत से ही यायावर रही घुमन्तू जातियाँ कहाँ जायेंगी? इनको धर्म के किस चश्मे से देखा जायेगा? सरकारी रिकॉर्ड में हिंदुस्तान में ऐसी 840 जातियाँ हैं जबकि वास्तविक रूप में ऐसी जातियों की संख्या 1200 से ज्यादा है। मुश्किल से 20 फीसदी घुमन्तू जातियों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज हैं, जबकि इन समाजों की जनसंख्या हमारी कुल जनसंख्या का 10 फीसदी है यानी 15 करोड़ के लगभग। सवाल ये है कि इन लोगों का क्या होगा? क्या इनको दोबारा से उसी घेटो (हिरासत शिविरों) में कैद कर देंगे जैसे 1871 में अंग्रेजों ने किया था? कालबेलिया, कलन्दर, बाजीगर, मदारी, कुचबन्दा, मिरासी, सांसी, गाड़िया-लुहार, छप्परबन्द, ढोली, सिकलीगर, कोली इत्यादि सैंकड़ों घुमन्तू जातियाँ किसी एक धर्म के अंतर्गत कभी नही रहीं, उनको हम किस चश्मे से देखेंगे?
भले ही 2014 में किन्नरों को भी मान्यता मिल गई हो मगर किसी भी जनगणना में इनकी संख्या स्पष्ट नहीं है। यह वह समाज है जिसे सबसे पहले अपने परिवार की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है, बाद में समाज का। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में तो इस समाज को पूरी तरह नेस्तनाबूद करने का प्रयास ब्रिटिश सत्ता ने किया था। ये किन्नर किस तरह अपने नागरिक होने के साक्ष्य पेश करेंगे। हालाँकि अमित शाह विश्वास दिलाते हैं कि एनआरसी से कोई दिक्कत नहीं होगी लेकिन सवाल तब उठता है जब देश के पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद का परिवार ही नागरिकता सूची से गायब हो? यह भ्रम कौन दूर करेगा।