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Thursday, Jun 1, 2023
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छाले – पं. अजय भट्टाचार्य

छाले
यहाँ चित्र में सडक पर उतरे मजदूरों के पैरों में पड़ छाले उस व्यवस्था के छाले हैं जो आजादी के बाद से अब तक इनका इलाज नहीं ढूंढ पाया है। कोरोना परिस्थिति से जूझने के लिए की गई देशकरण के दौरान कई प्रिय-अप्रिय घटनाएँ, प्रसंग, चित्र, स्क्रीन के बीच जो सबसे ज्यादा प्रभावित वर्ग है, संयोग से देश की सरकार उसके लिए समर्पित होने का मौखिक दावा विभिन्न मंचों से करती रही है। अर्थात गरीबों के लिए काम करने वाली सरकार। कहने-सुनने में यह अच्छा भी लगता है। इसलिए 20 मार्च को संसद में कोरोना के सन्दर्भ में चर्चा भी हुई।
कोरोनावायरस के प्रकोप का प्रभाव असंगठित क्षेत्र के कामगारों पर सबसे अधिक पड़ने को उजागर करते हुए लोकसभा में सदस्यों ने इस पर गंभीर चिंता जाहिर की और सरकार ने उनकी आजीविका सुनिश्चित करने के लिए विशेष आर्थिक उपाय किए जाने की मांग की गई। शून्यकाल में इस मामले पर हुई चर्चा का आरंभ ही कोरोनावायरस के कारण गरीब मजदूर, आटो रिक्शा चालक, रिक्शा चालक, रेहड़ी पटरी वाला तबका सबसे अधिक प्रभावशाली होने वाला है से हुआ है। उस चर्चा में ही यह बात भी स्पष्ट हुई कि अगले दो महीने इन लोगों के लिए सबसे मुश्किल होने वाले हैं। सदन ने सामाजिक मेलजोल से दूरी बनाए रखने के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान का पूरी तरह समर्थन करते हुए आर्थिक कार्य बल गठन करने की बात की। उसी शाम आठ बजे प्रधानसेवक ने राष्ट्र को संबोधित किया और 22 मार्च को कोरोना से लड़ने के मैदान में डार्ट स्वास्थ्य, स्वच्छता, सुरक्षा व अन्य आवश्यक कर्मचारियों के सम्मान में ताली-थाली पीटने की अपील की जिसका जितना क्रांतिकारी (?) परिणाम होना चाहिए था उसने सबने देखा और अनुभव भी किया। अगला चित्रहार 24 मार्च की रात आठ बजे 21 दिव्या देशव्यापी बंद की घोषणा से शुरू हुआ जो अब अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर चुका है।
इस बीच जगह-जगह मजदूर सडकों पर दिखाई पड़ा है। उसे अपने घर जाना है और देशीकरण के चलते यह संभव नहीं हो रहा है। यह मजदूर है जो सरकार की किसी भी योजना में लाभ पाने के लिए अधिकृत नहीं है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस वर्ग को संगठित क्षेत्र का श्रमिक कहा जाता है। अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र से जुड़े रोजमर्रागारों का एक विशाल बहुमत भारतीय अर्थव्यवस्था की एक विशेषता है। भारत सरकार के श्रम मंत्रालय को असंगठित श्रम बल के अनुसार- व्यवसाय, रोजगार की प्रकृति, विशेष रूप से व्यथित श्रेणियों और सेवा श्रेणियों के मामले में चार समूहों के तहत वर्गीकृत किया गया है।
ये छोटे और सीमांत किसान, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, हिस्सा साझा करने वाले, मछुआरे, पशुपालक, बीड़ी रोलिंग करनेवाले, ईंट भट्टों और पत्थर खदानों में लेबलिंग और निर्माण करनेवाले, निर्माण और आधारभूत संरचनाओं में कार्यरत श्रमिक, श्रमिक के कारीगर, बुनकर, कारीगर, कारीगर नमक मजदूर, तेल मिलों आदि में कार्यरत मजदूरों को कब्जे वाली श्रेणी के अंतर्गत माना गया है। संलग्न करते हुए खेतिहर मजदूर, बंधुआ मजदूर, प्रवासी मजदूर, ठेका और दैनिक मजदूर रोजगार की प्रकृति के अंतर्गत आते हैं। इसके अलावा विशेष व्यथित श्रेणी में ताड़ी बनाने वाले, सफाईकर्मी, सिर पर भार ढ़ोने वाले, पशु चालित वाहन वाले वाहन आते हैं। चौथी सेवा श्रेणी के अंतर्गत घरेलू कामगार, क्रीमुआरे और मादाएं, यू, सब्जी और फल विक्रेता, जर्सी पेपर विक्रेता आदि आते हैं।
श्रम मंत्रालय अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि कपड़ा सिलाई द्वारा अपना गुजारा करने वाले महिला या पुरुष, कपड़ा सिलाई करने के लिए दर्जी की दुकान वाला, सिलाई कारीगर किस श्रेणी में आयेंगे, संगठित या असंगठित? शासन द्वारा उनके लिए लाभकारी योजना कौन सी है? मेडिकल स्टोर्स में कार्य करने वाले और मेडिसिन होम सप्लाई। मजदूर किस श्रेणी के है उनके लिए क्या सुविधा है? देशीकरण की घोषणा के बाद सरकार ने 1.70 लाख करोड़ की निधि कोरोना संकट में फंसे गरीबों सहित मजदूर भी शामिल हैं, के लिए आवंटित की जाए। यह सरकारी मदद क्या इन मजदूरों तक पहुंचती है? यह सवाल उठाते ही आप पहले तबलीगी जमात से लेकर देशद्रोही जमात तक की बहस से उलझना देंगे। सड़कों पर उरा मजदूर देशद्रोही हो गए! क्योंकि वह भूख से। बेरोजगारी से, अनिश्चित भविष्य से जूझने अपने घर जाने के लिए सड़कों पर उतरा था / है।
पिछले साल के बजट से पहले जारी आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि कुल मजदूरों में से 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में हैं। बीते साल नवंबर में नीति आयोग की ओर से जारी आजादी के “75 साल में नए भारत की रणनीति” में 85 प्रति कामगारों के असंगठित क्षेत्र में होने का अनुमान लगाया गया था। हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण में कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि उक्त आंकड़ों का आधार क्या है। नीति आयोग ने अपने आंकड़े के लिए वर्ष 2014 की एक रिपोर्ट का हवाला दिया था। वर्ष 2012 में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की ओर से जारी रिपोर्ट आफ द कमिटी आन आर्गेनाइज्ड सेक्टर स्टैटिस्टिक्स में असंगठित क्षेत्र के कामगारों की तादाद 90 फीसदी से ज्यादा बताई गई थी। असंगठित क्षेत्र की तस्वीर खास उगली नहीं है। श्रम मंत्रालय की ओर से वर्ष 2015 में तैयार एक रिपोर्ट में कहा गया था कि कृषि व गैर-कृषि क्षेत्र में काम करने वाले 82 प्रति कामगारों के पास नौकरी का कोई लिखित आवेदन नहीं (कांट्रैक्ट) नहीं है। 77। 3 प्रतिशत को वेतन सहित छुट्टी नहीं मिलती है और 69 प्रतिशत को कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलता है। मजदूरी के मामले में इस क्षेत्र के कामगार उपेक्षा के शिकार हैं। केंद्र सरकार की ओर से श्रम कानूनों में सुधार कर असंगठित क्षेत्र के कामगारों को कानूनी व सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने की राह में कई कठिनाइयां हैं और सरकार के पास तैयारियों का अभाव साफ नजर आता है। जिसका सीधा प्रभाव देशकरण के दौरान इस वर्ग पर स्पष्ट देखा जा सकता है। अपने घरों में सुरक्षित बैठी जमात इस वर्ग के दर्द को इसलिए महसूस नहीं कर सकती या कर नहीं सकती क्योंकि उसके पास राशन, दारू-शराब, पैसा सब है इसलिए उसे सड़कों पर पसरा इंस्पेक्टर मजदूर देश के लिए खतरा नजर आ रहा है। क्योंकि इस जमात के अपने तर्क हैं कि अगर दो महीने के खर्च की बचत नहीं कर पाते हैं तो लानत में ऐसी कमाई पर जैसी फब्ती तैयार है। और सबसे ऊपर जब सरकार बहादुर ने कहा है कि बाहर नहीं निकलना है तो सड़क पर उतरना अपराध ही है। यह अलग बात है कि उत्तराखंड से 1800 लोग देशकरण के बीच भी सरकारी बसों से गुजरात पहुंच गए हैं। देशीकरण सिर्फ मजदूरों-मजबूरों के लिए है।

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