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मुसलमानों के प्रति अपनी परंपरागत सोच में बदलाव कर रहा है संघ!

मुसलमानों के प्रति अपनी परंपरागत सोच में बदलाव कर रहा है संघ!

 

मंगलेश्वर (मुन्ना)त्रिपाठी

देश में चर्चा का विषय है क्या मुसलमानों के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नीति में कोई बदलाव आ रहा है ? इससे जुड़ा सवाल यह है कि इसके परिणाम क्या होंगे ? वैसे यह सिलसिला आज का नहीं है, संघ अपने को भले ही सांस्कृतिक सन्गठन कहता हो, परन्तु जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी और उसके वर्तमान मजबूत स्वरूप की नींव में यदि कोई है तो वो संघ के स्वयंसेवकों की ताकत ही है। ताजा सिलसिला राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक के ताजा बयान औ हलचल हैं। जैसे नागपुर में एक किताब के विमोचन के दौरान सर संघचालक मोहन भागवत ने जाति और वर्ण व्यवस्था को खत्म करने की अपील की है। भागवत ने कहा- समाज का हित चाहने वाले हर व्यक्ति को यह कहना चाहिए कि वर्ण और जाति व्यवस्था पुरानी सोच थी जिसे अब भूल जाना चाहिए। इससे पहले दशहरे पर उन्होंने रोजगार के लिए नौकरियों की तरफ न देखने की सलाह दी थी।इन बयानों का अर्थ संघ के सामाजिक समरसता कार्यक्रम से जोड़ा जा सकता है,लेकिन व्यापक अर्थ कुछ और इशारा करता है।

सर संघचालक मोहन भागवत की मस्जिद और मदरसे की यात्रा भी कुछ ऐसे सवाल करती है, जो संघ की दैनिक प्रार्थना से मेल नहीं खाती। संघ के स्वयंसेवक इस प्रार्थना को रोज दोहराते हैं। संघ के जानकार इन स्वयंसेवकों की संख्या करोड़ों में बताते हैं ? इस सब का मस्जिद जाने से क्या लेना-देना? दिल्ली की एक मस्जिद में जाना । वहां इमाम के साथ करीब एक घंटा बिताना । जाहिर है, पहले तो लोग हैरान हुए। अटकलें लगने लगीं कि क्या मुसलमानों के प्रति आरएसएस की नीति में कोई बुनियादी बदलाव करने जा रहा है?संघ ने उनकी इस पहल के लिए मीडिया में संघ की नीति के विपरीत अच्छा प्रचार भी करवाया । इससे एक महीने भी पहले दिल्ली में ही पांच प्रभावशाली मुस्लिम नागरिकों से मुलाकात की थी।कयास लगाये जा रहे क्या मुसलमानों के प्रति संघ की नीति बदल रही है? सब जानते हैं संघ की बुनियाद और उद्देश्य तो भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए ही रखी गई थी। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघ ने पहले जनसंघ और फिर भाजपा का गठन किया।

वर्तमान परिस्थितियों में, भला संघ को अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों को बदलने की क्या आवश्यकता है। सवाल यह भी है बदला हुआ संघ हिंदू राष्ट्र के एजेंडे को कैसे पूरा कर सकेगा। अगर भागवत मुसलमानों के प्रति नरम दिख रहे हैं तो इसके कुछ राजनीतिक मकसद हो सकता है।
यह सब प्रतिक्रिया स्वरूप हो सकता है। संघ और भाजपा को दो बातों की चिंता है. सबसे पहले, भाजपा प्रवक्ता नुपुर शर्मा द्वारा दिए गए बयान पर सभी इस्लामी देशों की भारत के खिलाफ कड़ी प्रतिक्रिया। इस्लामी देशों में इस संबंध में प्रतिक्रिया से न केवल भारत की प्रतिष्ठा को ठेस लगी बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव की आशंका भी पैदा हुई । अरब देशों में नौकरी करने वाले और हर साल लाखों डॉलर भारत भेजने वाले करोड़ों भारतीयों का भविष्य भी सशंकित हो गया। इनमें अधिकांश हिंदू हैं। इस स्थिति ने मोदी सरकार और संघ दोनों के लिए चिंता पैदा कर दी। इस पृष्ठभूमि में यह अनिवार्य हो गया कि मुस्लिम देशों के गुस्से को शांत करने के लिए कुछ कदम उठाए जाएं। इस संबंध में इससे बेहतर और क्या हो सकता था कि सर संघचालक मोहन भागवत संकेत दें कि संघ की इस्लाम से कोई दुश्मनी नहीं है। वह इस लक्ष्य में कितने सफल हुए, यह तो समय ही बताएगा।

दूसरी बात पिछले कुछ हफ्तों में भाजपा का विरोध करने वाले विपक्षी दलों के बीच गठबंधन की संभावना बढ़ गई है। नीतीश कुमार की कोशिशों के बाद और अब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष चुनाव के बाद इस काम में तेजी आती दिखती है। विपक्ष में ऐसा विचार बन रहा है कि २०२४ का आम चुनाव एक साथ लडने से ही अस्तित्व बचेगा। संघ आदतन साफ बात नहीं करता है। इसलिए दूसरा विषय सामने कर दिया गया है। अब आरक्षण को लेकर बयान फिर चर्चा में है।सर संघचालक मोहन भागवत ने कल कह दिया कि “ऐसी कोई भी चीज जो भेदभाव पैदा कर रही हो उसे पूरी तरह से खारिज कर देना चाहिए। भारत हो या फिर कोई और देश, पिछली पीढ़ियों ने गलतियां जरूर की हैं। हमें उन गलतियों को स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। अगर आपको लगता है कि हमारे पूर्वजों ने गलती की है, ये बात मान लेने पर उनका महत्व कम हो जाएगा तो ऐसा नहीं है, क्योंकि हर किसी के पूर्वजों ने गलतियां की हैं। ”इसलिए मस्जिद और मदरसा तो कूटनीति मात्र व्याकुलता है और यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि संघ की मुस्लिम नीति में कोई मौलिक परिवर्तन होगा।

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