कृष्ण कुमार मिश्र ,
चुनाव के लिए बीजेपी के उम्मीदवारों की घोषणा के साथ ही गुजरात में चुनावी जंग तनावपूर्ण दौर में प्रवेश कर गई है. बीजेपी के कई दिग्गजों को बैठा दिया गया है , कई ने चुनाव लडने से मना कर दिया है । इशारा बहुत साफ है की गुजरात में कुछ अप्रत्याशित हो सकता है। हाईकमान द्वारा बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सीआर पाटिल को पूरी ताकत दी गई है.
वलसाड जिले में पांच विधानसभा सीटें है ,साथ सारे हुए वन विस्तार की आदिवासी बहुल क्षेत्रों की निर्णायक सीटें है।
बीजेपी की रणनीति समझने वाले लोगों की समझे तो लगता है की पिछले 6 सालों में बीजेपी का संगठन चाहे वह आरएसएस , विहिप ,संत समाज के साथ ही अन्य समाजसेवी संगठन इत्यादि ने बहुत मेहनत की है ,वनवासी विस्तार में वोट शेयर बढ़े ,विकास कार्यों पर काफी खर्चे गए। प्रधानमंत्री ने खुले मंच से वनवासियों के लिए विकास निधि की घोषणा की जिससे बीजेपी को विश्वास है की वनवासी क्षेत्रों में उसे काफी फायदा मिलेगा। कही शहरी क्षेत्रों में नुकसान हुआ तो उसकी भरपाई ग्रामीण बंदी क्षेत्रों से हो सकती है।
हाल ही में पाटीदार समाज के तेज तर्रार युवा चेहरा हार्दिक पटेल कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए , हार्दिक का बीजेपी में शामिल होना आम आदमी पार्टी की काट और कांग्रेस की तरफ से पाटीदार समाज को साथ लाना संजीवनी साबित हो सकता है। ये भी तय माना जा रहा है की हार्दिक पटेल को वीरगाम सीट से टिकट देकर ,अगर बीजेपी की सरकार बनती हो तो मंत्री पद मिलना ही है। 2010 में कांग्रेस के बढ़िया प्रदर्शन के पीछे हार्दिक पटेल की कड़ी मेहनत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अब तक का इतिहास देखें तो गुजरात चुनाव में बीजेपी ने हमेशा शहरी सीटों पर अपनी ताकत दिखाई है, जबकि कांग्रेस की ताकत ग्रामीण सीटों पर है। 2010 में ग्रामीण इलाकों में कांग्रेस ने बीजेपी से ज्यादा सीटें जीतीं, 57 से बढ़कर 71 हो गया, जबकि वही बीजेपी की सीटें 77 से 63 पर आ गई। गुजरात की 42 शहरी सीटों में से बीजेपी सबसे ज्यादा जीती है. 2017 में, शहरी सीटों ने भाजपा के बहुमत में बहुत योगदान दिया। 42 शहरों में से 36 सीटें बीजेपी के खाते में गईं। आम आदमी पार्टी इस बार सूरत, अहमदाबाद, राजकोट और वडोदरा जैसे शहरों में अपनी ताकत आजमा रही है। अगर वे कांग्रेस को नुकसान पहुंचाती है तो बीजेपी को फायदा होगा, लेकिन अगर शहरों में बीजेपी को नुकसान पहुंचाती हैं, तो इससे कांग्रेस को फायदा हो सकता है।
आम आदमी पार्टी 2022 के चुनाव में मचा सकती है उथल-पुथल।
2021 के सूरत नगर निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को हराकर मुख्य विपक्षी सीट छीन ली थी। उसके बाद गांधीनगर नगर निकाय चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को हरा दिया, जिससे आप को सत्ता मिली। आम आदमी पार्टी को भाजपा की बी-टीम के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह मुख्य रूप से कांग्रेस के वोटों को काटती है, लेकिन चुनावी गणित जटिल है। आम आदमी पार्टी का मुकाबला कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी से है. आम आदमी पार्टी उन दलितों और वनवासियों में ज्यादा पैठ नहीं बना सकती जो कांग्रेस के पारंगत वोट बैंक हैं। बीजेपी जहां चुनाव में हिंदू कार्ड खेल रही है, वहीं अरविंद केजरीवाल सॉफ्ट हिंदुत्व कार्ड खेल रहे हैं. वे खुद को हनुमानजी के भक्त मानते हैं और जोर-जोर से हनुमान चालीसा का पाठ कर सकते हैं।
अरविंद केजरीवाल मुसलमानों का पक्ष लेने के बारे में ज्यादा प्रचार नहीं करते हैं, लेकिन वह हिंदू मंदिरों में जाने के बारे में बहुत कुछ करते हैं। इस तरह वे शहरी मुसलमानों के साथ-साथ हिंदुओं का भी वोट हासिल करने में सफल हो जाते हैं। आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा आधार पाटीदार वोट है। सौराष्ट्र के अलावा सूरत और राजकोट जैसे शहरों में कुछ सीटों पर पाटीदार वोट अहम भूमिका निभाते हैं। मेहसाणा को पाटीदारों का गढ़ भी माना जाता है। आम आदमी पार्टी को इस बात का फायदा हो सकता है कि नितिन पटेल को टिकट नहीं दिया गया है. भीतर हवा भी पक्की है कि बीजेपी के कुछ असंतुष्ट नेता निजी तौर पर आम आदमी पार्टी को जिताने में मदद कर रहे हैं।
आम आदमी पार्टी को केवल कांग्रेस के वोट काटने के लिए पार्टी मानना भाजपा की भूल होगी। यदि उसके उम्मीदवार शहरी क्षेत्रों में भाजपा के वोटों को तोड़ सकते हैं, तो उन सीटों पर कांग्रेस के जीतने की सी-पॉइंट-समतुल्य संभावना बढ़ जाती है, क्योंकि शहरी मुसलमान कभी भी भाजपा को वोट नहीं देने वाले हैं। अगर आम आदमी पार्टी को मुस्लिम वोट मिलते हैं, तो इससे कांग्रेस को नुकसान होगा, लेकिन अगर वह हिंदू वोटों को तोड़ती है, तो इससे कांग्रेस को फायदा होगा। गुजरात में बीजेपी 27 साल से सत्ता में है। इन 27 वर्षों में भी कांग्रेस का सफाया नहीं हुआ है, बल्कि आज भी जीवित और लड़ाई में भी है। 2017 के चुनाव में कांग्रेस को 77 सीटें और 40 फीसदी वोट मिले थे. 10 फीसदी ज्यादा वोट और 20 सीटें ज्यादा मिलती हैं तो गुजरात में कांग्रेस का 20 साल का जंगल खत्म हो सकता था।
दबे जुबान में ही सही लेकिन शासन ,प्रशासन के ही लोग बताते हैं कि भाजपा शासन में भ्रष्टाचार बढ़ा है और प्रशासन पर पकड़ ढीली पड़ गई है , यह स्पष्ट है कि एक अंधा व्यक्ति भी इसे देख सकता और महसूस करता है, कहता भले कुछ नही। 10 साल पहले गुजरात अपनी अच्छी सड़कों के लिए मशहूर था। आज राष्ट्रीय राजमार्ग को छोड़कर सभी सड़कों की हालत खस्ता है। नगरपालिका की सड़कें चंद्रमा की सतह से मिलती जुलती हैं। स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। गुजरात का प्रशासन मंत्रियों द्वारा नहीं बल्कि बाबुओं द्वारा चलाया जाता है। कोरोना काल में जब लॉकडाउन के कारण लोगों को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था, तब लोगों के प्रतिनिधि सामने नही आए और असीमित शक्ति कलेक्टरों के हाथों में आ गई। वह आए दिन नए फतवे जारी कर लोगों को परेशान करता था। भूपेंद्र पटेल की सरकार में ज्यादातर मंत्री नए जैसे हैं. उन्हें प्रशासन का कोई अनुभव नहीं है।
मोरबी में सस्पेंशन ब्रिज की त्रासदी में गुजरात मॉडल की पोल खुल गई है. बीजेपी की हालत इतनी खराब होने के बावजूद गुजरात कांग्रेस इसका फायदा नहीं उठा पा रही है. कांग्रेस में असहज नेतृत्व की स्थिति है , 1 अनार 100 बीमार सी स्थिति है , नेता कौन होगा? यह भी तय नहीं है।
हालांकि बीजेपी से तंग आ चुके मतदाता बीजेपी को सबक सिखाने के लिए विपक्ष को वोट देकर गुजरात में बड़ा चमत्कार कर सकते हैं। चुनाव में जनता ही जनार्दन है , निर्णायक भूमिका जनता ही अदा करेगी और अपना आशीर्वाद किसे देती है ,यह नतीजों के बाद ही पता चलेगा।