यह किसी अच्छे और प्रजातांत्रिक देश के लक्षण नहीं है, जहाँ देश के भीतर नागरिक समाज और सरकार के बीच सम्बन्ध बिगड़ते जा रहे हो, दुर्भाग्य अव यह बात विदेश तक पहुँच गई है। इंदौर में प्रवासी भारतीयों के साथ जिस तरह का सलूक हुआ, वो यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि देश में कुछ ऐसी ताकतें हैं जो भारत की छबि को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। पहले भारत देश के भीतर की बात – हाल के दिनों में सरकार और नागरिकों के बीच टकराव के मुद्दे का विषय 6,677 गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को विदेशी फंडिंग पाने से संबंधित लाइसेंस गंवाना था। फिर प्रवासी सम्मेलन – इंदौर में हुए प्रवासी भारतीय सम्मेलन में हुई अव्यवस्था ने मध्यप्रदेश सरकार, भारत सरकार और देश के सूत्र वाक्य अतिथि देवों भव की कीर्ति को धूमिल कर दिया। पहले मामले में सरकार ने कुछ संस्थाओं को आदेश दिया है कि वे विदेशी फंड जुटाने की अपनी गतिविधियां रोक दें और इंदौर में घर आये मेहमानों के साथ जैसा सुलूक हुआ और उसकी जिम्मेदारी अब तक तय न होना प्रमाणित करता है की देश के गृह मंत्रालय में कुछ गडबडी है, उसका सूचना तंत्र विफल है।
पहला मामला भी इसी तंत्र की नाकामी की और इशारा करता है। केंद्र ने राज्यों को भी यह निर्देश दिया है कि वे उन क्षेत्रों में एनजीओ की गतिविधियों को सीमित करें जहां की प्राथमिक जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास है। यह बात अहम है कि इन एनजीओ ने न तो कोई नियम तोड़ा है और न ही उन्हें दंडित किया गया है। बस सरकार उनकी गतिविधियों से चिढ़ी हुई है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने राज्यों को एक पत्र लिखा है जो एनजीओ द्वारा फैलाए जा रहे झूठ को लेकर शिकायत करता है और स्थानीय प्रशासन से कहता है कि वे सरकार की पोषण योजनाओं के बारे में जागरूकता बढ़ाएं। सेव द चिल्ड्रन के मामले में एक विज्ञापन को वापस लेने का आदेश दिया गया है जिसमें एक अत्यधिक कुपोषित आदिवासी बच्चे को दिखाया गया है। सरकार का मानना है कि यह उसके गरीबी उन्मूलन उपायों पर अभियोग के समान है। साइटरसेवर्स के मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय ने उससे अनुरोध किया है कि वह भारत देश में अंधत्व नियंत्रण के लिए आम जनता से फंड जुटाने की कोशिशें बंद करे, क्योंकि उसकी यह कोशिश सरकार के नैशनल कंट्रोल फॉर ब्लाइंडनेस ऐंड विजुअल इंपेयरमेंट के खिलाफ है जहां सरकार नि:शुल्क सेवाएं देती है। उदाहरण के लिए सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण समेत एक के बाद एक अनेक आंतरिक सर्वेक्षणों ने यह बताया है कि बच्चों में कुपोषण एक गंभीर मसला है। इस बात को देखते हुए निश्चित तौर पर यह सरकार के हित में है कि वह प्रतिष्ठित संस्थानों के साथ मिलकर बच्चों का पोषण सुधारने की दिशा में काम करे।
बांग्लादेश का अनुभव बताता है कि एनजीओ के सहयोग से उसने अपने मानव विकास सूचकांकों में महत्त्वपूर्ण सुधार किया है। इससे सबक लेने की आवश्यकता है। यह विडंबना ही है कि सेव द चिल्ड्रन अतीत में कई योजनाओं में सरकार के साथ मिलकर काम कर चुका है। इसी प्रकार नेत्रहीनता या एक हद तक दृष्टि बाधा भी एक समस्या है, खासकर गरीब लोगों में। ऐसे में नेत्र संबंधी स्वास्थ्य को बढ़ावा देने वाले किसी भी कार्यक्रम को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इन दोनों घटनाओं से कुछ संकेत उभरते हैं। पहली बात सरकार एनजीओ जगत को जो भी संदेश देने की कोशिश कर रही है चिंता की बात है। चूंकि ये सन्गठन अपनी प्रकृति के अनुरूप ही स्वास्थ्य, शिक्षा आादि सामाजिक सेवाएं देती है तो ऐसे में इन क्षेत्रों में उपयोगी काम कर रहे एनजीओ के पास क्या कोई विकल्प शेष रह जायेगा ? क्या इनसंस्थाओं को अपना काम इस प्रकार समेट लेना चाहिए सरकार की भावना का उल्लंघन न हो? दूसरी बात – घर न्यौता देकर विदेश से बुलाये मेहमानों के साथ जो हुआ उसके लिए जिम्मेदार कौन है ? भारत की कीर्ति की रक्षा आज के दौर में सर्वोच्च है। इसमें विध्न डालने वाले देश के हितैषी नहीं हो सकते।