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संपादकीय

रामचरितमानस ने मज़बूत की फ़िजी में हिन्दी की बुनियाद,

(१२ वाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन, फ़िजी: भाग – १) 

दक्षिण प्रशांत महासागर के मध्य स्थित फ़िजी द्वीप समूह का दिनाराई द्वीप और नादी नगर १२ वें विश्व हिन्दी सम्मेलन की मेज़बानी के लिए तैयार है। एयरपोर्ट से आयोजन स्थल तक बड़े-बड़े होर्डिंग लगाए गए हैं। एयरपोर्ट पर प्रतिभागियों के स्वागत के लिए स्थानीय फ़िजी हिन्दी प्रेमियों की उपस्थिति आनंदित करती है। 15 फरवरी से तीन दिवसीय सम्मेलन की शुरुआत होगी। इस बार के सम्मेलन का मूल विषय “पारंपरिक ज्ञान से कृत्रिम मेधा तक” है। विश्व भर के हिन्दी प्रेमियों का फ़िजी आना शुरू हो चुका है। इतने विशाल पैमाने पर हो रहे आयोजन के बावजूद एयरपोर्ट से लेकर पूरे नादी नगर में भारतीय रूपयों को फ़िजी डॉलर में बदलने को कोई तैयार नहीं था। यहाँ तक कि भारतीय बैंक ऑफ बड़ौदा की स्थानीय शाखा ने भी रूपयों को फ़िजी डॉलर में बदलने की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई है।

भारत और फ़िजी द्वीप समूह का रिश्ता लगभग डेढ़ सदी पुराना है। माना जाता है कि यूरोपीय औपनिवेशिक देशों द्वारा फ़िजी पर आधिपत्य के पहले अफ्रीकी मूल के लोग यहाँ आकर बसे थे। 1874 में ब्रिटेन ने फ़िजी को अपना उपनिवेश बना लिया और गुलाम देशों के नागरिकों को फ़िजी भेजने का सिलसिला शुरू हुआ। 14 मई, 1879 को पहला ब्रिटिश जहाज विभिन्न भाषा भाषी भारतीय मज़दूरों को लेकर फ़िजी पहुँचा था। 1879 से 1916 के बीच 87 जहाज़ों में भरकर लगभग 61000 भारतीयों को शर्तबंदी मज़दूर के रूप में गन्ने के खेतों मे काम करने के लिए लाया गया। इन मज़दूरों में हिन्दी प्रदेशों के अवधी, भोजपुरी अंचल के गिरमिटियों की बहुतायत के साथ अन्य अहिन्दीभाषी मज़दूर भी थे। भारतीय गिरमिटिया मज़दूरों की एकता, भाईचारे और संस्कृति की भाषा के रूप में “फ़िजी बात” यानी फ़िजी हिन्दी का विकास हुआ। आज फ़िजी हिन्दी फ़िजी द्वीप समूह की तीसरी राजभाषा है। फ़िजी के कई एफ़एम चैनलों पर हिन्दी के गीत लगातार सुनाए जाते हैं। टैक्सी में यात्रा के दौरान एक चैनल पर फगुआ चौताल गाया जा रहा था जिसे हमारा भारतीय-फ़ीजी चालक बहुत आनंद से सुन रहा था।

फ़िजी दक्षिण प्रशातं महासागर का स्वर्ग कहलाता है। अपनी जन्मभूमि से लगभग बारह हजार किलोमीटर दूर बंधुआ मज़दूर के रूप में आए भारतीयों ने अपने खून पसीने से इस द्वीप समूह की सफलता का इतिहास रचा है। फ़िजी के बड़े उद्यमी भारतीय मूल के हैं जिनमें गुजरातियों और पंजाबियों की संख्या अधिक है। फ़िजी के किसी चौक, चौराहे, दुकान-बाज़ार में हिन्दी बोलते लोग मिल जाएँगे। यहाँ के लोगों में भारत के प्रति एक उत्सुक स्नेह भाव है। तीसरी-चौथी पीढ़ी के भारतीय फिजियों को यह नहीं पता कि उनके पूर्वज भारत के किस राज्य या ज़िले से लाए गए थे। इसका एक कारण उनके पूर्वजों का छोटी उम्र का और निरक्षर होना था। बावजूद इसके वे तुलसी के रामचरितमानस को अपने साथ लाए थे। गोरे मालिकों के अमानवीय अत्याचारों को दिन भर सहने के बाद भी शाम को मानस का पाठ करना वे नहीं भूलते थे। आज फ़िजी में लगभग दो हज़ार मानस पाठ करनेवाली मंडलियाँ हैं। कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि तुलसी के रामचरितमानस ने फ़िजी में भारतीयों को न सिर्फ़ सांस्कृतिक रूप से जोड़ा अपितु हिन्दी भाषा की मज़बूत बुनियाद रखी।

1975 से आरंभ हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन का फ़िजी में आयोजन यहाँ के लोगों को न सिर्फ़ भाषा से जोड़ने में सहायक होगा अपितु भारतीयता की भावना को भी मज़बूत करेगा। ग़ौरतलब है कि फ़िजी में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश किया है। पिछली फ़िजी सरकार ने चीनियों को निवेश में कुछ सहूलियतें भी दी थी। नई सरकार भारत के प्रति सकारात्मक रुख़ रखती है। विश्व हिन्दी सम्मेलन का यह आयोजन दोनों देशों के सांस्कृतिक संबंधों को नये आयाम देने में सहायक होगा।

प्रो. संजीव दुबे

अधिष्ठाता
भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर

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