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संसद में सत्ता पक्ष का गतिरोध विपक्ष जैसी भूमिका:-मंगलेश्वर ( मुन्ना) त्रिपाठी

जनता अपने को ठगा सा महसूस कर रही है। जिन्हें सांसद चुना, वे ही सदन नहीं चलने देते। देश हित की कार्यवाही करने की तनख़्वाह सांसद लेते हैं, उसे न करके सिर्फ़ राजनीति करते हैं । हाल ही में संसद के दोनों सदनों में बजट सत्र का दूसरा भाग भी पूरी तरह राजनीतिक गतिरोध की भेंट चढ़ गया। यूं तो विभिन्न मुद्दों पर गतिरोध के चलते विपक्षी दलों का हंगामा करना आम बात है। लेकिन संभवत: यह पहली बार है कि सत्तापक्ष विरोध में विपक्ष जैसी भूमिका में नजर आया। राहुल गांधी द्वारा ब्रिटेन में दिये गये कथित अनुचित बयानों के लिये माफी मंगवाने के मुद्दे पर सत्ता पक्ष अड़ा रहा। जिसके चलते संसद का कार्य सुचारु रूप से नहीं चल सका। वहीं विपक्ष भी अडाणी के साम्राज्य पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट से उपजे विवाद पर संयुक्त संसदीय समिति के गठन की मांग को लेकर अड़ा रहा है। क्या यही देश हित है? निस्संदेह, यह गतिरोध लोकतंत्र के मज़ाक़ जैसी स्थिति उत्पन्न करता है। सत्ता से बाहर बैठे विपक्ष में सत्ता पक्ष के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाना आसानी से समझ आता है लेकिन सत्ता पक्ष का यह व्यवहार आम बात नहीं है। सत्तापक्ष लगातार राहुल गांधी से माफी मांगने पर अड़ा रहा। निस्संदेह, अक्सर राहुल गांधी विवादों के मुद्दों पर हमला करने के लिये एक लाइन का पंच दोहरा देते हैं, लेकिन उसमें एक परिपक्व राजनेता जैसी धीर-गंभीरता नजर नहीं आती। निस्संदेह, उठाये गये मुद्दे को आम लोगों को स्पष्ट करने के लिये जो व्याख्या की जरूरत होती है, वह नदारद रहती है। संभव है कुछ लोग मानते हों कि राहुल गांधी को सरकार व भारतीय लोकतंत्र को लेकर विदेश में ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी। निस्संदेह, विदेशी ताकतें इन बयानों व आंकड़ों को अपनी सुविधा के हिसाब से भारतीय हितों के विरुद्ध प्रयोग कर सकती हैं। लेकिन संसद मे हंगामा करने के बजाय सत्ता पक्ष को राहुल गांधी को अपनी बात कहने का अवसर तो दिया ही जाना चाहिए था। यदि संसद महसूस करती है कि राहुल गांधी ने गलत किया तो उन्हें माफी मांगने के लिये कहा जा सकता था। निस्संदेह, यदि इस अप्रिय विवाद को टाला जाता तो निश्चिय ही जनता-जनार्दन से जुड़ी कई महत्वपूर्ण समस्याओं पर विचार किया जा सकता था।

संसद के गतिरोध के बीच जनता के चुने नुमाइंदों को लोकतंत्र की भाषा व संवेदना तथा संविधान के आलोक में संसद की गरिमा का ध्यान रखना चाहिए। जनता के द्वारा चुने गये नुमाइंदों को ‘चौकीदार चोर है’ और ‘सारे मोदी ऐसे हैं…’, जैसे कटु व अप्रिय बोलों से बचना चाहिए। जाहिर है आप जब ऐसी भाषा का इस्तेमाल करेंगे तो उसी भाषा में जवाब सुनने के लिये तैयार भी रहना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनीतिक विमर्श की भाषा के स्तर में निरंतर पराभव जारी है। आरोप-प्रत्यारोपों की तल्ख भाषा का कोई अच्छा संदेश जनता में तो नहीं ही जाता। जब हम यह कहते नहीं थकते कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो चुने नुमाइंदों का आचरण उस बड़प्पन के अनुरूप भी तो होना चाहिए। कैसी विडंबना है कि पूरा सत्र सिर्फ विवादों की भेंट चढ़कर रह गया। संसद की एक मिनट की कार्रवाई में लाखों रुपये का खर्च आता है। इस तरह देश के करदाता के करोड़ों रुपये यूं ही व्यर्थ चले गये। निस्संदेह, लोकतंत्र में राजनीति होना स्वाभाविक है, लेकिन हर मुद्दे में राजनीति हो, यह दुर्भाग्यपूर्ण है। आशंका है कि संसद के आने वाले कुछ और सत्र भी इसी तरह विवादों की भेंट चढ़ सकते हैं। आसन्न लोकसभा चुनावों के चलते हर दल अब जनता के हित के बजाय अपने राजनीतिक एजेंडे को संसद के जरिये संबोधित करने की कोशिश करेगा। जिसके चलते संसद के दोनों सदनों में गतिरोध स्वाभाविक रूप से पैदा ही होगा। लोकतंत्र में नेताओं को अपनी बात कहने और अपने वोटर वर्ग को संबोधित करने का अधिकार है, लेकिन इसके लिये संसद व संवैधानिक प्रावधानों की गरिमा बनी रहनी चाहिए। संसद बहस, संवाद, विचार-विमर्श तथा चर्चा का मंच है, उसे महज वोट की राजनीति का अखाड़ा नहीं बनाया जाना चाहिए। देश महंगाई,बेरोजगारी, पलायन व सीमाओं से जुड़ी तमाम समस्याओं से जूझ रहा है। क्या कभी सत्तापक्ष व विपक्ष मिल-बैठकर संवेदनशील ढंग से इनका समाधान निकालने की ईमानदार कोशिश करते नजर आएंगे?

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