बिहार के भागलपुर जिले में गंगा नदी पर 1710 करोड़ रुपये की लागत से बन रहा फोर-लेन का सुलतानगंज-अगुआनी पुल भरभराकर ढह गया। खास बात यह है कि 14 महीने पहले ही इस निर्माणाधीन पुल का एक हिस्सा अचानक टूट कर गिरा था। अब तक आठ बार इसके निर्माण के लिए डेडलाइन दी गई थी, लेकिन कंस्ट्रक्शन बेहद धीमी गति से चल रहा था। आखिर विकास कार्यों में ऐसी शिथिलता क्यों होनी चाहिए ? क्या समयबद्ध या टाइमबाउंड तरीके से मजबूत और टिकाऊ निर्माण कार्य नहीं किए जा सकते ? इस पुल के चार पिलर और 170 से अधिक स्पैन ढह गए। पुल दो टुकड़ों में बंटकर नदी में जा गिरा। स्थानीय लोगों ने पुल गिरने की घटना का वीडियो बनाया। यह मंजर काफी डरावना और दिल दहला देने वाला है। ये तो गनीमत है कि रविवार होने की वजह से पुल पर काम नहीं चल रहा था, वर्ना दुर्घटना में श्रमिकों की जान जा सकती थी। फिर भी वहां तैनात एक गार्ड लापता बताया जाता है। वर्ष 2014 में मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने इस पुल का शिलान्यास किया था और 2023 में इसकी जलसमाधि हो गई। सैंकड़ों करोड़ों रुपये पानी में बह गए। यह केवल बिहार की ही बात नहीं है, यही हाल हर राज्यों में भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में भी निर्माणकार्यों में भ्रष्टाचार चरम पर है। गुजरात का वलसाड जिला भी इससे अछूता नहीं है। अभी हाल ही में उदाहरण के रूप में वलसाड जिला के जिला पंचायत मार्ग व मकान विभाग द्वारा 2.42 करोड़ रुपये की लागत से वांकी नदी पर माइनोर पुल बनाया गया था, जो मात्र 11 महीने में ही यातायात के लिए सलामत नहीं है और उस पुल से वाहनों का आवागमन बंद कर दिया गया है। जबकि इस पुल को बनाने वाले कांट्रेक्टर तेजस जीतेन्द्र पटेल ने 2,42,44,852 रूपये का बिल मंजूर करने के लिए दिया था। इस बिल को मंजूर करने के लिए वलसाड जिला पंचायत के मार्ग – मकान विभाग के तत्कालीन नायब कार्यपालक इंजीनियर निलय नायक व एस. ओ. अनिरुद्ध चौधरी ने 50 लाख रूपये रिश्वत की मांग की थी, और सौदा 15 लाख रुपए में तय हुआ। लेकिन कॉन्ट्रैक्टर ने इसकी शिकायत एसीबी में कर दी और बिचौलिया सहित दोनों इंजिनियर आज जेल में हैं, जबकि कॉन्ट्रैक्टर आजाद है।
विकास के नाम पर खुली लूट:–
विकास के नाम पर भ्रष्टाचार होना अत्यंत दुखद है। निर्माण कार्य को पूरा करने पर ध्यान नहीं दिया जाता। दशकों तक काम आधे-अधूरे पड़े रहते हैं और उनकी लागत कई गुना बढ़ जाती है। ऐसी शिकायत आपको हर जगह देखने को मिल जायेगी। जानबूझकर देरी करने के पीछे कुछ न कुछ प्रयोजन जरूर रहता है। अधिकारियों, ठेकेदारों और नेताओं की मिलीभगत से काम कछुआ गति से चलता है ताकि हर बार बजट में उसके लिए कुछ न कुछ रकम आवंटित होती रहे। कुछ योजनाएं तो सिर्फ कागजों तक सीमित रहती हैं, उनका प्रत्यक्ष अस्तित्व नजर ही नहीं आता। क्वालिटी या गुणवत्ता से समझौता करने का नतीजा भीषण दुर्घटना के रूप में सामने आता है। जब निर्माण कार्य में बंदरबांट और कमीशनखोरी होगी तो घटिया या सबस्टैंडर्ड मटीरियल में स्टील-सीमेंट-कंक्रीट-रेती का अनुपात सही नहीं रखा जाता है तो निर्माण कार्य मजबूत और टिकाऊ कहां से होगा। एक पुल ढहेगा तो दूसरा पुल बनाने के लिए नया टेंडर निकलेगा। क्या घटिया काम करने वाले ठेकेदार ब्लैक लिस्ट किए जाते हैं ? गारंटी से अच्छा काम क्यों नहीं किया जाता ? जबकि ब्रिटिश शासनकाल में बनाये गये पुल 100 साल से चल रहे हैं, वहीं वर्तमान में पुल बनते-बनते धराशायी हो जा रहे हैं, आखिर ऐसा क्यों ? जबकि इसकी जिम्मेदारी तय करनी होगी।