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आदिवासी बच्चों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने के लिए कपराड़ा तालुका के शिक्षकों का भगीरथ प्रयास

 शिक्षक दिवस पर विशेष लेख:- जिग्नेश सोलंकी द्वारा 
 आदिवासी बच्चे स्कूल आना पसंद करें, इसलिए शिक्षकों को लोकगीत, लोकबोली, लोकवार्ता व नृत्य गीत भी सीखना पड़ता है:- 
बच्चों को समझने के लिए कि वे घर में अपने दादा-दादी या बड़ों से कौन सी बोली बोलते हैं तो उन्हें यह भी सीखना पड़ता है:- 
आदिवासी क्षेत्र में बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ आदिवासी संस्कृति के रूप में लोकबोली का संवर्धन:- 
राज्य सरकार द्वारा आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए लोक बोलियों के विभिन्न मॉड्यूल भी बनाये गये:-
स्टार मीडिया न्यूज, 
 वलसाड। बच्चे के जीवन की पहली सीढ़ी स्कूल है, जहाँ से वह कदम दर कदम आगे बढ़ता है। इस दौर में बच्चों की पढ़ाई के प्रति रुचि बनाए रखने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी शिक्षकों की है। लेकिन जब आदिवासी इलाकों में बच्चों की शिक्षा की बात आती है, तो बड़ी-बड़ी डिग्री वाले कई शिक्षकों के लिए भी यह काम मुश्किल हो जाता है। फिर वलसाड जिले के धरमपुर, कपराडा और उमरगाम तालुका में शिक्षकों को बालवाटिका व 1-2  के बच्चों को गुजराती भाषा में पढ़ाने से पहले स्थानीय बोली सीखनी पड़ती है। आज शिक्षक दिवस के मौके पर हम कपराडा तालुका के उन शिक्षकों के बारे में बात करने जा रहे हैं जिन्होंने आदिवासी विस्तार के बालकों में शिक्षा का प्रमाण बढ़ाने और वे समाज के मुख्यधारा से जुड़े, इसके लिए स्थानीय बोली सीखने और बच्चे स्कूल आना पसंद करें ऐसा मनोरंजक शिक्षा प्रदान करने के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया है।
 यह बात वलसाड जिला के कपराडा तालुका के भीतरी इलाके में स्थित मोटी पलसान गांव के करंजली फलिया के प्राथमिक विद्यालय के सहायक शिक्षक छनाभाई जनुभाई चौधरी के बारे में है। वे वर्ष 1999 से आदिवासी क्षेत्र में बच्चों के बीच शिक्षा की लौ जला रहे हैं। जब छनाभाई स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे होते हैं तो हो सकता है कि हमें शब्द समझ में न आएं लेकिन बच्चे उन शब्दों को सुनकर तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं। जैसे, ચલા ઊભા હોમ જા બધી જ પોછે (चलो सभी बालक खड़े हो जाओ), ચલા બધી જ બાહેર ચલા આગની ચલા (चलो सभी बाहर आंगन में चलें) ऐसे कई शब्द हैं, जो बच्चों के जीवन में रचे-बसे हैं। बच्चों को मनोरंजक शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षक छनाभाई द्वारा स्थानीय लोक गीत भी तैयार किये गये हैं, जिन्हें उत्सव के दौरान कक्षा में तबले की ताल पर गाया जाता है जिस पर बच्चे झूम उठते हैं। संक्षेप में कहें तो शिक्षक छनाभाई चौधरी बच्चे के साथ बच्चे जैसा बनने की प्रेरणा दे रहे हैं।
वहीं महाराष्ट्र की सीमा पर कपराडा तालुका के भीतरी इलाके में स्थित बामनवाड़ा गांव की प्राथमिक विद्यालय की शिक्षिका चेतनबेन पटेल का बच्चों को पढ़ाने का एक अलग दृष्टिकोण है। पिछले 17 सालों से आदिवासी बच्चों में शिक्षा की लौ जला रही चेतनबेन बच्चों को पढ़ाते-पढ़ाते खुद भी बच्चे जैसी हो गई हैं और बच्चों में शिक्षा के साथ-साथ संस्कार भी डाल रही हैं। उनका कहना है कि यहां के बच्चे पहले तो गुजराती भाषा नहीं समझते हैं। इसलिए आपको स्थानीय बोली सीखनी होगी और उस बोली में बात करनी होगी। जैसे कि स्कूल में बच्चों को कहना हो कि फटाफट काम करो तो वे प्रतिक्रिया नहीं करते हैं, लेकिन यदि आप कहें कि धीरे-धीरे काम करते हैं, तो वे तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं। अगर आप इस तरह के अन्य शब्दों पर नजर डालें तो, આખી ઉભી થા (चलो खड़े हों), પારગટ વાળાય બેસ બસાય (सीधे बैठें), એલે કાય સાગાય (इसे क्या कहते हैं) લાહા લાહા લીખાય (जल्दी लिखो), વર કાય લીખેલ આહે ( ऊपर क्या लिखा है), ઉદે એ વાંચુન ઈજા (इसे पढ़कर आओ) और એ તામડા રંગ આહે (यह लाल रंग है) ऐसे शब्द बच्चों के जीवन में शामिल होते हैं। और शुरुआत में स्थानीय बोली में शिक्षित होने के बाद उन्हें धीरे-धीरे गुजराती भाषा से परिचित कराया जाता है।
करंजली प्राथमिक विद्यालय के सहायक शिक्षक छनाभाई चौधरी कहते हैं कि आदिवासी क्षेत्र के एक गाँव का बच्चा अपनी कालीघेली बोली में बात करता है। इसे समझने के लिए बच्चे अपने घर दादा-दादी व बड़ों के साथ कौन सी बोली बोलते हैं वह सीखना पड़ता है। फिर बच्चों को धीरे-धीरे गुजराती भाषा से परिचित कराया जाता है। बच्चों को कहानियों, लोकगीतों और कविताओं से परिचित कराना बहुत ज़रूरी है। इसके लिए मैं गायन, नृत्य और बोलने की कला विकसित करने का प्रयास कर रहा हूं ताकि बच्चों की इसमें अधिक रुचि हो। शिक्षा की उन्नति के लिए शिक्षक, बच्चे और माता-पिता सभी की भूमिका महत्वपूर्ण है। तभी आज का बच्चा कल का सर्वोत्तम नागरिक बन सकेगा।
बामनवाड़ा प्रा. स्कूल की प्रधान शिक्षिका चेतनाबेन पटेल का कहना है कि आदिवासी क्षेत्र में बच्चों की शिक्षा के साथ-साथ स्थानीय भाषा को आदिवासी संस्कृति के रूप में विकसित किया जा रहा है। क्योंकि, स्कूल में बच्चों को प्रारंभिक प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने में स्थानीय भाषा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिसके लिए गुजरात सरकार अलग-अलग मॉड्यूल बनाकर शिक्षकों को ट्रेनिंग भी दे रही है। स्थानीय बोली का प्रयोग केवल बालवाटिका और कक्षा 1-2 में ही किया जाता है, उसके बाद कक्षा 3 से सिर्फ गुजराती भाषा में पढ़ाई होती है।
ये अलग-अलग शब्द बच्चों के जीवन में गुंथे हुए हैं:-
मुख्य अध्यापिका चेतनाबेन का कहना है कि आदिवासी क्षेत्रों में बच्चों को पढ़ाते समय शिक्षकों द्वारा उपयोग किए जाने वाले कुछ महत्वपूर्ण शब्द हैं,  પક્ષી ને પાખરું, રોટલાને ભાખર , ઉપર ને વર , નીચે ને ભૂટી, ચોખા ને જેવુંન, મસ્તીને કુટાય, લીલા રંગને નીખો અને વાઘને ખડા के रूप में संबोधित किया जाता है ये अलग-अलग शब्द बच्चों के दैनिक जीवन में गुंथे हुए हैं।
लोकगीतों के माध्यम से आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने का प्रयास:-
करंजली प्रा.स्कूल के सहायक शिक्षक छनाभाई द्वारा होली के त्योहार पर बच्चों के साथ गाया गीत जो काफी लोकप्रिय है। जिसके बोल हैं, ક્યાં ક્યાં મહિને આલીવ હોળીબાઈ, કાઈ કાઈ ભેટ ઘેસીવ હોળીબાઈ – – – – તાદુળ સેંદુર ઘેસીવ હોળીબાઈ – – के लोकगीत की धुन पर बच्चे थिरक उठते हैं। इसके अलावा बच्चों को ટીરીરીરી….ટીરીરીરી…. મીને પોપટલાલ નાચતા નાચતા ડોંગરાલ હેરાય ગેલુ, દગડી મી હેરલે ઝાડ મી હેરલ, હેરલા મી બારીક રાન – -जैसे लोकगीतों के साथ मनोरंजक शिक्षा दी जा रही है।

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