विजयादशमी का पर्व हर प्रकार की बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। अशुभ और शुभ की विजय, अन्याय पर न्याय तथा अनाचार पर सदाचार की जीत इसमें निहित है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि चरित्र, धैर्य, शौर्य और मन की प्रबल शक्ति से ही युद्ध जीता जाता है। बड़ी-बड़ी सेना और शस्त्रास्त्र रखे रह जाते हैं, जबकि धैर्य, शौर्य और मनोबल रखने वाला व्यक्ति अल्प साधनों के बावजूद सफल व विजयी होता है। राम की रावण पर विजय हो या पांडवों की कौरवों पर, इनका लक्ष्य यही था कि दुर्गुण रूपी अंधकार पर सदगुण रूपी प्रकाश की जीत हो। रामायण में राम के विजयरथ का रूपक रचा गया है जिसके पहिए शौर्य व धैर्य हैं, सत्य व चरित्र उसका ध्वजदंड और पताका है। बल, विवेक, इंद्रियों पर नियंत्रण और परोपकार उसके चार अश्व हैं। वर्तमान में ऐसी कितनी ही बुराइयां दृष्टिगोचर हो रही हैँ जिनका संकल्पपूर्वक उन्मूलन करना जन-जन का कर्तव्य है। यह सोचना व्यर्थ है कि कोई मसीहा या महापुरुष आयेगा और जादू की छड़ी से इस कलुष को दूर कर देश, समाज व मानवता को नई रोशनी देगा। हमें स्वयं सार्थक प्रयासों से पहल करनी होगी, तभी हम रचनात्मक परिवर्तन की अपेक्षा रख सकते हैं।
स्वार्थपूर्ण हो गई है राजनीति:–
राजनीतिक क्षेत्र की ओर गौर करें तो आज की राजनीति सिद्धांतविहीन व आत्मकेंद्रित हो उठी है, जिसमें नेता सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं। वे चुनावी उखाड़-पछाड़ की रणनीति में इतना उलझे हैं कि जनकल्याण को प्राथमिकता देना ही नहीं चाहते। योजनाएं कागज पर बनती हैं परंतु जमीन पर उतर नहीं पातीं। बगैर कमीशनखोरी के कोई काम ही नहीं होता। जो नेता स्वयं भ्रष्ट होगा, वह अपने अधीनस्थ अधिकारियों से काम ही नहीं ले सकता। राजनीति जनसेवा के लिए नहीं, बल्कि कुर्सी बचाने या कुर्सी छीनने तक सीमित रह गई है। जब बेमेल गठबंधन बनते हैं तो उसमें शामिल सारी पार्टियां चुनाव जीतने पर “अलीबाबा चालीस चोर” की कहानी दोहराती है। जनता जानती है कि उम्मीदवार भ्रष्ट और चरित्रहीन है, लेकिन फिर भी उसके बहकावे व छलावे में आकर उसे निर्वाचित करती है। छोटे-मोटे प्रलोभनों के जाल में मतदाता को जकड़ने वाले नेताओं को लोग कब तक बर्दाश्त करेंगे ? राजनीतिक बुराई को खत्म करना है तो मतदाताओं को चाहिए कि ईमानदार और सिद्धांतवादी नेताओं को निर्वाचित करे।
भ्रष्ट प्रशासन तंत्र को लाया जा सकता है लाइन पर:–
प्रशासन क्षेत्र में लालफीताशाही, रिश्वतखोरी, निकम्मापन हावी है। कुछ महकमे भ्रष्टाचार के लिए बुरी तरह बदनाम हैं। सिद्धांतवादी अफसरों का बार-बार तबादला कर दिया जाता है, जबकि जी-हुजूरी करने वालों को पदोन्नति मिलती है। जनहित के कार्यों को प्राथमिकता को पूरा करने की बजाय महीनों ही नहीं बल्कि वर्षों तक लटका दिया जाता है। इंजीनियर, ठेकेदार और नेता की तिकड़ी इसके लिए जिम्मेदार मानी जाती है। कितने ही इलाकों में गड्ढों के बीच सड़क खोजनी पड़ती है। पुल बनने से पहले टूट जाता है और बना हुआ पुल टूटने पर यातायात रोक दिया जाता है, परंतु नया पुल बनाने में तत्परता नहीं दिखाई जाती। अगर जनता एकजुट हो जाये तो ऐसे लापरवाह प्रशासन को सही लाइन पर लाया जा सकता है।
अब तो सामाजिक क्षेत्र भी नहीं बचा है :—
वर्तमान समय में सामाजिक क्षेत्र में बहुत से बोगस एनजीओ पनप रहे हैं। वृद्धाश्रम, आश्रम शाला, अनाथालय, निराश्रित महिला केंद्र और आदिवासी कल्याण केंद्र चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता भ्रष्ट अधिकारियों से मिलीभगत कर सरकारी ग्रांट की बंदरबांट करते हैं। विदेश से धन लेकर यहां आंदोलन कर अशांति पैदा करते हैं और विकास में रोड़े अटकाते हैं। तात्पर्य यह है कि बुराई रूपी रावण हर कहीं मौजूद है जो गरीबी, लाचारी, अंधविश्वास और अपराध की शक्ल में मौजूद है। अब तो अच्छाई का संकल्प बल लेकर जनता-जनार्दन को ही उससे निपटना होगा।
चिंतन में हो बदलाव:–
व्यक्ति की सोच से संकल्प, संकल्प से शक्ति और शक्ति से नया सृजन या बदलाव, यह एक तय मापदंड है। सकारात्मक विचारों का सृजन समाज में सुखी बदलाव लाता है। भ्रष्टाचार के पीछे खुदगर्जी की भावना होती है, जबकि हमारा चिंतन व्यापक होना चाहिए। ईमानदारी और परिश्रम की नींव पर ही राष्ट्र खड़ा होता है। विश्व विजेता रावण को उसकी स्वेच्छाचारिता और घमंड ने मारा। बेईमानी और भ्रष्टाचार की मानसिकता तभी मिट सकती है जब व्यक्ति समग्र राष्ट्र व मानवता को अग्रक्रम दे। उपनिषदों में सीख दी गई थी ” अयं निज: परोवेति गणना लघु चेतसाम, उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम। अर्थात यह मेरा है, यह दूसरे का है, ऐसी गणना तुच्छ मन रखने वाले करते हैं। और जिनका मन निश्छल है, उनके लिए संपूर्ण वसुधा कुटुंब के समान है।