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Saturday, Apr 27, 2024
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संपादकीय

फ़िजी आकाश में चमकेगा हिन्दी का सूरज

  औपनिवेशिक काल में कहा जाता था कि अंग्रेज़ी राज में सूरज कभी अस्त नहीं होता था। आज यह कहने में संकोच नहीं कि हिन्दी जाति का सूरज भी कभी नहीं डूबता। हिन्दी का यह सूरज देश-विदेश में फैले हिन्दी जनों के कारण जगमगाता है। भारत में जब सुबह नहीं हुई होगी और अमेरिका में तारीख़ नहीं बदली होगी तब फ़िजी में विश्व हिन्दी सम्मेलन के उद्घाटन का दीप पूरी दुनिया में हिन्दी का सूरज बन जगमगा जाएगा। आप जब यह ख़बर पढ़ रहे हैं फ़िजी में तीन दिवसीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का आग़ाज़ हो चुका है। यह जानना रोचक है कि दुनिया भर में तिथि का निर्धारण करनेवाली अंतरराष्ट्रीय डेटलाइन फ़िजी से होकर गुजरती है। सुदूर पूरब में होने के कारण भारत से साढ़े छह घंटे पहले फ़िजी में सूर्योदय होता है। यदि फ़िजी के सूर्योदय और और भारत के सूर्यास्त के बीच दिन का मान निकाला जाए तो कह सकते हैं कि पंद्रह फ़रवरी का दिन अगले चार सालों के लिए हिन्दी का सबसे बड़ा दिन है।
भाषा मानव समुदायों को कैसे जोड़ती है इसका उत्कृष्ट नजारा फ़िजी में देखने को मिलता है। भारत के विभिन्न प्रांतों से गिरमिटिया के रूप में फ़िजी लाए गए मजदूरों की एक भाषा नहीं थी। अमानवीय ब्रिटशों ने गुलाम देशों से लाए मज़दूर दंपतियों तक को अलग-अलग समूहों में मज़दूरी के लिए भेजा। जो जिस मालिक के खेतों में काम करने गया उसने वहाँ एक नई ज़िंदगी शुरू की। भाषा ही नहीं नस्ल का भेद भी उन्हें नई ज़िंदगी शुरू करने से नहीं रोक सका। परिणामतः सब एक दूसरे से न सिर्फ़ घुलमिल गए बल्कि उन्होंने हिन्दी को अपनी भाषा के रूप में अपना लिया जिसमें मुख्यतः अवधी की शब्दावली इस्तेमाल होती है। भारत में विभिन्न भाषा-भाषियों के बीच राजनीतिक कारणों से तनाव पैदा करने की कोशिश होती है पर यहाँ भाषा, धर्म और नस्ल तक को हिन्दी जोड़े हुए है। फ़िजी में पहले बसनेवाले अफ़्रीकियों की बस्ती में एक अफ्रीकी मूल के व्यक्ति को हिन्दी बोलते सुन मन आह्लादित हो गया।
लौतोका के गिरमिट संस्कृति केंद्र देखने बड़े उत्साह से पहुँचने पर पता चला कि वहाँ गिरमिटिया मज़दूरों के जीवन से जुड़ी कोई स्मृति संग्रहित नहीं है। केंद्र के सचिव ने बताया कि यह केंद्र दोनों देशों की सरकारों की उपेक्षा का शिकार है। यह केंद्र फ़िजी गिरमिट काउंसिल के द्वारा संचालित है जिसकी स्थापना फ़िजी में गिरमिटियों के आगमन की एक शताब्दी पूरी होने पर 1979 में की गई थी। काउंसिल की स्थापना में हिन्दुओं और मुसलमानों की संस्थाओं ने सामूहिक रूप से सहयोग दिया। 1981 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी ने इस केंद्र का उद्घाटन किया। केंद्र के सचिव की ज़िम्मेदारी संभाल रहे तमिल भाषी सेल्वा नंदन ने शुद्ध हिन्दी में बताया कि उन्होंने केंद्र को उसके उद्देश्यों के अनुरूप विकसित करने के लिए अनुदान हेतु फ़िजी और भारत की सरकारों को कई बार लिखा पर उनके पत्रों की नोटिस तक नहीं ली गई। नंदन जी बताते हैं कि केंद्र के लिए आबंटित ज़मीन का बड़ा टुकड़ा विकास की राह देख रहा है। विश्व हिन्दी सम्मेलन में आए भारत के विदेश मंत्री से भी उन्होंने सहयोग की उम्मीद लगा रखी है।
भारतीय मूल के फीजियों की आबादी बहुत बड़ी असमानता की शिकार है। कुछ भारतीय यहाँ बहुत बड़े-बड़े उद्योगों और मालों के मालिक हैं तो बड़ी संख्या उन लोगों की है जो आज भी लीज़ पर ली ज़मीनों पर खेती कर रहे हैं या छोटी मोटी नौकरी कर गुज़ारा कर रहे हैं। न उनके पास अपनी ज़मीन है न अपनी ज़मीन पर मकान। आसमान तब भी उनका था और आज भी आसमान सा ख़ालीपन उनकी आँखों में देखा जा सकता है। दो दिनों से फ़िजी घुमा रहे टैक्सी ड्राइवर सतीश चंद को हमने तीन सौ तीस डालर का भुगतान किया। फ़िजी के बाज़ारों में छोटी मोटी ज़रूरतों का सामान ख़रीदते हुए हमने जाना कि इस कमाई से पाँच लोगों का उनका परिवार बड़ी मुश्किल से ही चलता होगा। सतीश चंद का अपने पिता के प्रति प्रेम देख हम भावुक हो उठे। यात्रा के दौरान हमने उन्हें खाखरा खाने को दिया जो उन्हें पसंद आया। जब हमने दुबारा लेने का आग्रह किया कि तो उन्होंने बड़े संकोच से एक खाखरा अपने पिता के लिए लेकर रख लिया। सतीश चंद पुराने हिन्दी सिनेगीतों में गहरी रुचि रखते हैं। मुकेश और किशोर कुमार के गाए नग्मों को आप उनसे कभी भी सुन सकते हैं।
प्रो. संजीव दूबे 
अधिष्ठाता
भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान 
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय 
गांधीनगर

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