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होली के अनेक रंग क्या है परंपरा का महत्व और उद्देश्य

होली भारत वर्ष में ऐसा त्योहार है ,जिसे अमीर ,गरीब ,मध्यम वर्ग बड़े ही धूम धाम से अपने अपने तरीके से मनाता है। इस त्योहार की विशेषता है यह मस्ती और आनंद का पर्व है। आइए जानते हैं होली का पारंपरिक महत्व और यज्ञीय परंपरा का महत्व:-

होली उत्सव यज्ञीय परम्परा का पवित्रतम् उत्सव-

भारतीय संस्कृति में ‘यज्ञो वै भुवनस्य नाभिः’ अर्थात् यज्ञ को सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नाभिकेन्द्र की मान्यता है। कहते हैं सम्पूर्ण सृष्टि में सतत यज्ञ का संचालन हो रहा है। यही यज्ञ संस्कृति समाज व्यवस्था, परिवार व्यवस्था एवं जीवन का अंग बने इस निमित्त ऋषियों ने पर्व त्योहारों की परम्परा विकसित की, जनमानस को इससे जोड़ा और इन पर्वों के मूल में स्थापित किया यज्ञीय विधान। दीपावली, रक्षाबंधन, दशहरा, करवाचौथ, नवरात्रि से लेकर प्रत्येक पर्व में यज्ञ का विधान है। होली उत्सव यज्ञीय परम्परा का पवित्रतम् उत्सव कहा जा सकता है। होली भारतवर्ष सहित सम्पूर्ण विश्व में मनाया जाने वाला लोकपर्व है। इसे मन्वन्तरारंभ का भी पर्व कह सकते हैं, यह पर्व जन-जन आंतरिक उल्लास को उभारने के लिए यज्ञीय संकल्प से जुड़कर सांस्कृतिक संदेश भी देता है। इसमें कृषि संस्कृति से लेकर ऋषि मूल्यों तक का समावेश है। प्राचीन समय से प्रचलित इस सार्वभौम पर्व में देश के हर वर्ग, जाति, धर्म एवं संप्रदाय के लोगों को उत्साह व आनन्द की अनुभूति होती है। जीवन को उल्लास के साथ जीने की रीति-नीति का शिक्षण देने वाले इस प्रकृति पर्व पर प्रकृति की सुन्दर छटा बिखरती है, उसी छटा की अभिव्यक्ति हेतु लोग आपस में गुलाल-अबीर से अपनी आन्तरिक पुलकन को प्रकट करते हैं।

_वैदिक व पौराणिक स्वरूप-_

वैदिककाल से ही होली पर्व मनाने की परम्परा है। यह पर्व कृषियज्ञ प्रसूत हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का त्योहार है। इसे नवसस्येष्टी यज्ञ भी कहा जाता है। “तृणाग्नि भ्राष्टर्छपक्व शर्माधायं होलकः” अर्थात् तिनकों की अग्नि में भुने हुए अधपके फली वाले अन्न जिसे ‘होलक’ कहते हैं। होलक को लोक परम्परा में कृषि यज्ञ प्रसाद रूप में ग्रहण करने का विधान है। होलिका शब्द की व्युत्पत्ति इसी होलक शब्द से हुई होगी। इन नवान्न बालियों को प्रज्वलित अग्नि में भूनने की यह यज्ञीय परंपरा अति प्राचीन है, वैदिक ऋचाएं भी यही कहती हैं। पौरोहित्य ग्रन्थों में होली को ‘यवाग्रयन यज्ञ’ नाम से संबोधित किया गया है।

वैदिक काल में नवसस्येष्टी यज्ञ ने ही कालान्तर लोक परम्परा में होलिकोत्सव का रूप ले लिया।
सूत्र से जहां ऋग्वेद इस नवान्न महोत्सव की प्राचीनता को वर्णित करता है, वहीं भविष्यपुराण होली को हास्य-विनोद का पर्व बतलाता है।

इससे स्पष्ट है कि होली सदियों से भारतीय जनमानस में रची-बसी है और यह प्रतिवर्ष लोक जीवन की जड़ता को तोड़कर नवीनता, नवउल्लास, उमंग लाने का माध्यम मनता रहा। यह मंत्र इसी संदेश को देते हुए कहता है कि होलिकोत्सव को मनाने के लिए भांति-भांति के सुन्दर व रंगीन वस्त्र पहनें। अबीर, गुलाल, चन्दन एक-दूसरे को लगाएं। हाथों में बांस की पिचकारियों लेकर एक-दूसरे के घर जाएं और उनपर रंग डालें। नर-नारी सभी इस हास्यविनोद के पर्व में शामिल हों।

_लोक परम्परा में होली-_

जैमिनी एवं शबर ने भी इसी तरह होली पर्व को वर्णित किया है। अनुसंधान बताते हैं कि ‘होलाका’ उन 20 क्रीड़ाओं में से एक था, जो संपूर्ण भारतभर में किसी समय कई सदी तक प्रचलित था। इसके अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा पर लोग इसे पर्व के रूप में एक-दूसरे के साथ मिलकर मनाते रहे। लिंगपुराण इस पर्व को ‘फाल्गुनिका’ कहकर संबोधित करता है एवं इसे विभूति एवं ऐश्वर्य प्रदायक पर्व मानता है।

यद्यपि बंगाल में आज भी इस होली का स्वरूप बिल्कुल भिन्न दिखता है। पर्व में यह परिवर्तन चैतन्य महाप्रभु के प्रभाव से आया। वास्तव में चैतन्य महाप्रभु का जन्म इस दिन होने के कारण यहां होली ढोलयात्र पर्व के रूप में मनाया जाता है। बंगाल में तीन से पांच दिन तक चलने वाले इस पर्व में 16 खम्बों से युक्त मण्डप में भगवान श्री कृष्ण की प्रतिमा स्थापित की जाती है। प्रतिमाओं को पंचामृत से स्नान कराकर रंगों, गुलाल, चन्दन आदि से उसका पूजन किया जाता है, तत्पश्चात सभी मिलकर फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी को रात्रि को आनन्दोत्सव मनाते हैं। दक्षिण भारत में इसे ‘कामदहन पर्व’ के रूप में मनाया जाता है।

_होली का बहुदेशीय स्वरूप-_

भारत के बाहर भी होली पर्व जैसे मनाने की परम्परा है, बस इसके रूप अवश्य भिन्न हैं। चीन में इसे “फ़ोश्चेइचिये” कहते हैं। चार दिन तक चलने वाले इस उत्सव में पुराने साल की विदाई एवं नए वर्ष के स्वागत के संकल्प समाहित होते हैं। इस उत्सव की शुरुआत ‘काओशंग’ नामक आतिशबाजी से होती है, तत्पश्चात सभी नर-नारी एक-दूसरे को बधाई देते हैं, मुंह मीठा कराते हैं।

कार्निवाल जो लोगों में वर्षभर के तनाव-घुटन से मुक्त करता है

जर्मनी में यह पर्व वसंत के आगमन पर हंसी उमंग एवं मस्ती का पर्व ‘कार्निवाल’ नाम से मनाया जाता है। जर्मनी के सारे शहर 15 दिन तक चलने वाले इस पर्व पर रंगों से सराबोर हो जाते हैं। इस दौरान वहां जगह-जगह मूर्ख सम्मेलन के आयोजन भी किये जाते है। जर्मनवासियों के अनुसार होली जैसा यह कार्निवाल पर्व लोगों में वर्षभर से तनाव-घुटन से मुक्त करने का एक सफल प्रयास रहा है।

होली का नैसर्गिक संबंध ऋतुपरिवर्तन से भी है। गर्ग संहिता सहित फागुकाव्य, वसन्तविलास, सूरदास एवं परमानन्द के काव्यों तथा अन्य जगह होली एवं कृष्ण का सरस, सजीव एवं सुन्दर चित्रंकन मिलता है। वैसे होली तत्कालिक आजादी के दीवानों को संगठित करने एवं आजादी की हूक जनमानस में जगाने हेतु विशिष्ट पर्व बना रहा। जहां एक ओर होली विषम काल में भी संगठित करने में सफल रहा, वहीं आज कितनी विड़म्बना है कि भारतवर्ष आज भी जातिवाद, क्षेत्रवाद, संकीर्णता, साम्प्रदायिकता से घिरा हुआ है।

युवाशक्ति नशे में डूबी है, संस्कृति के नाम पर अश्लीलता का नंगानाच देखने को मिलता है। ऐसी स्थिति मे होली हमें पुनः-पुनः याद दिलाती है समरसता व उमंगो से भरे एक ऐसे अवसर की, जब हम छोटे-बड़े का भेद मन से निकालकर स्वयं के मन का मैल निकाल फेंकें। हर वर्ष होली का त्यौहार सामूहिकता, संगठन और एकता को सुदृढ़ बनाने ही तो आता है।
होली यह भी संदेश देता है कि मनुष्य दीन- दुर्बल, डरपोक होकर न रहे, अपितु इस संसार में नृसिंह की तरह निर्भय और वीर का जीवन जिये। तभी तो प्रह्लाद ने असुरता को अपनाने के बजाय उसके सामने सीनातान कर खड़े होने का साहस दिखाया। संदेश यह भी है कि अनीतिकर्ता भले ही अभिभावक ही क्यों न हो, भगवत्सत्ता को श्रेष्ठता व पूर्ण साहस प्रिय है, होली लोक जीवन में इसी साहस को ही तो जगाना चाहती है राष्ट्र आंगन में पर्व पर गलियों की लोक परम्परा प्रतीकात्मक साहस अभिव्यक्ति ही है।

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