भारत सरकार की जी-20 वेबसाइट पर स्वतंत्रता संग्राम में उनके अमूल्य योगदान को लिखा गया है:-
1942 में अंग्रेज़ों ने वलसाड से कुल 15 लड़कों को गिरफ़्तार किया और साबरमती जेल ले गये थे:-
1930 में धरासना नमक सत्याग्रह के दौरान घायलों की भी शांतिलालभाई ने सेवा की:-
विशेष लेख:- जिग्नेश सोलंकी
स्टार मीडिया न्यूज,
वलसाड। भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुए स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 8 अगस्त 1942 का दिन एक ऐतिहासिक दिन था। गांधीजी द्वारा भारत छोड़ो आंदोलन के आह्वान के साथ ही पूरे देश में आंदोलन शुरू हो गया था। स्कूल और कॉलेज के छात्र भी अपनी पढ़ाई छोड़कर जोश के साथ इस आंदोलन में शामिल हो गये थे। इनमें से वलसाड शहर के गोलवाड में रहने वाले 21 वर्षीय शांतिलाल जीवनजी राणा भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए और अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगाए। जिसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और साबरमती जेल भेज दिया था। देश के लिए उनके अमूल्य योगदान को केंद्र सरकार के जी-20 पोर्टल पर भी उल्लेख किया गया है।
15 अगस्त को वलसाड में राज्य स्तर पर स्वतंत्रता दिवस मनाया जाने वाला है, इस अनमोल पल का जश्न मनाने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों के बेटों ने अपने पिता के अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष और कारावास की यादों को याद कर गर्व की भावना व्यक्त की है।
वलसाड में 77वां राज्य स्तरीय स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा है, ऐसे में स्वतंत्रता संग्राम में वलसाड जिले की भूमिका अहम रही है। कई नामी-अनामी लोग स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हुए थे। जिसमें वलसाड के स्वतंत्रता सेनानी शांतिलाल राणा का अमूल्य योगदान रहा है। अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन वास्तव में एक जन आंदोलन था, जिसमें लाखों लोग निडर होकर और आक्रामक मूड में जियेंगे या मरेंगे के जोश के साथ शामिल हो गए थे। अंग्रेजों ने इस आंदोलन के खिलाफ बहुत सख्त रवैया अपनाया था और स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले बच्चों को भी जेल में डाल दिया था। आजादी की लड़ाई में योगदान देने वाले व कारावास की सजा भुगतने वाले वलसाड शहर के गोलवाड निवासी शांतिलाल राणा वर्ष 1930 में जब धरासणा नमक सत्याग्रह हुआ था, तब घायल स्वयंसेवकों के इलाज के लिए अपनी सेवाएं दीं थी। फिर वर्ष 1942 में जब देश में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो शांतिलाल राणा ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और देशभक्ति की अदम्य भावना के साथ स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गये।
इस ऐतिहासिक घटना की यादों को ताज़ा करते हुए शांतिलाल राणा के बेटे मधुकर राणा और किरीटभाई राणा बताते हैं कि, दि. 8 अगस्त 1942 को अंग्रेजों ने आवाबाई स्कूल में से पिताजी के साथ 15 लड़कों को भी गिरफ्तार कर लिया था। उस वक्त उन्हें 3 महीने की जेल हुई थी। लेकिन कम उम्र के कारण 3 महीने की सज़ा को 3 साल के बराबर बताया गया था और कम उम्र के कारण पिताजी को साबरमती जेल के बाबा बैरक में रखा गया। उसके बाद उन्हें हिरासत बैरक में रखा गया। पिता की तरह अनेक लोगों ने भी छोटी उम्र में अपना कीमती वर्ष आजादी की लड़ाई में अर्पण कर दिए। भारत की आजादी की 40वें वर्षगांठ के अवसर पर पारडी से साबरमती तक निकली पदयात्रा में शांतिलाल भाई भी शामिल हुए थे।
चूँकि उनके पिता गांधीवादी विचारधारा के थे, इसलिए जेल से छूटने के बाद भी जब तक आजादी नहीं मिली तब तक अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते रहे। देश की आजादी के बाद उन्होंने पारिवारिक जीवन जीना शुरू कर दिया और मुंबई रेलवे में वरिष्ठ ड्राफ्ट्समैन के रूप में काम किया। चूंकि वे शिक्षा के महत्व को अच्छी तरह समझते थे, इसलिए उन्होंने अपने 8 बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाई। जिससे बच्चों को सरकारी नौकरी मिल गई। दिनांक 20 सितम्बर 1991 को बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। गुजरात सरकार ने उनके जीवनकाल के दौरान एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में पेंशन भी दी और उनकी मृत्यु के बाद उनकी धर्मपत्नी डाहीबेन को भी पेंशन मिल रही थी।
शांतिलाल राणा के योगदान को भारत सरकार के सांस्कृति विभाग ने भी दर्ज किया:-
शांतिलाल राणा के दोहित्री एवं पारडीसांठपोर प्राथमिक विद्यालय के उपशिक्षिका मेघा पांडे ने कहा कि जी-20 एवं आजादी का अमृत महोत्सव के अंतर्गत भारत सरकार के सांस्कृतिक संसाधन व तालीम केंद्र द्वारा विभिन्न जिला के गांवों व शहरों में रहने वाले लोगों ने देश की आजादी के लिए लड़ाई में अपना योगदान दिया है और यह योगदान मात्र परिवार तक सीमित न रहे, परंतु लोगों को भी जानकारी हो और अभी की पीढ़ी आजादी का महत्व समझे, इसके लिए काम किया जा रहा है। जिसमें शांतिलाल भाई को स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान का प्रमाण मानते हुए भारत सरकार की वेबसाइट पर स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उल्लेखित किया गया है। इसके लिए परिवार गर्व महसूस कर रहा है।