भारत की आर्थिक स्थिति को लेकर अब कई लोग अल्पावधि को लेकर आशावादी है,लेकिन दीर्घावधि को लेकर निराशा से घिरे हैं।ये सब वे लोग है जो संघर्ष से गुजर रही भारतीय अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले सदिच्छा से भरे पर्यवेक्षक रहे हैं। जो पहले कहा करते थे कि देश को लेकर वे अल्पकालिक रूप से निराशावादी नजरिया रखते हैं लेकिन दीर्घावधि को लेकर वे आशान्वित हैं। कहने को भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय बेहतरीन प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्था है। यह सबसे तेज गति से विकसित होती बड़ी अर्थव्यवस्था है। यह तेजी ऐसे कठिन समय में हासिल है जब जापान और ब्रिटेन तक की अर्थव्यवस्थाओं में गिरावट आ रही है और पिछली तिमाही तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था भी इसी दौर से गुजर रही थी।यूरोप क्षेत्र की हालत भी एकदम सपाट है। भारत में मुद्रास्फीति की दर पश्चिम की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं से कम है। व्यापार के मोर्चे पर भारत का चालू खाते का घाटा अमेरिका और ब्रिटेन से कम है। डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी की बात करें तो वह अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में कम ही गिरा है। पूरा मामला वृद्धि से इतर भी है। आंकड़ो के अनुसार आर्थिक स्थिरता के मोर्चे पर भी भारत का प्रदर्शन अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं से बेहतर है।
आमतौर पर भारत का प्रदर्शन चीन की छाया में ढक जाता था लेकिन चीन की गति कमजोर पड़ी है। उसकी वृद्धि के भारत की तुलना में आधा रहने का अनुमान है तथा वह ढांचागत समस्याओं से जूझ रहा है, खासतौर पर वित्तीय क्षेत्र की दिक्कतों से। भारत को अपने अनुभव से पता है कि उसे संकटग्रस्त बैलेंस शीट को सही करने में कितना वक्त लगेगा। इस बीच जापान का मामला एकदम अलग है। कम मुद्रास्फीति और दीर्घावधि के चालू खाता घाटे के अधिशेष के बावजूद वहां गतिशीलता का अभाव है। सर्वमान्य तथ्य है कि भारत अन्य देशों की तुलना में विकास के एक अलग स्तर पर है और हमारी प्रतिव्यक्ति आय काफी कम है, परंतु अगर निकट भविष्य पर नजर डाली जाए तो आर्थिक वृद्धि वैश्विक औसत का दोगुनी हो सकती है जबकि भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को कम करने पर केंद्रित है हालांकि पूंजीगत आवक तथा विदेशी मुद्रा भंडार चालू खाते के घाटे से निपटने के लिए पर्याप्त है।
यह सब उस परिदृश्य से एकदम विपरीत है जहां पश्चिम की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं मंदी की आशंका से जूझ रही हैं। ब्रिटेन में दशकों तक उठाए गए गलत कदमों ने वहां जीवनस्तर को प्रभावित किया है और बहुत कष्टप्रद विकल्प रह गए हैं। यह वह समय है जब चीन की वृद्धि दर वैश्विक औसत से नीचे जा सकती है और अमेरिका अपनी राजनीति में ही घिरा हुआ है। घरेलू स्तर पर देखें तो सरकार निरंतर नई पहलों में व्यस्त है जिनमें प्रोत्साहनों के प्रतिबद्ध इस्तेमाल के साथ देश को विनिर्माण का केंद्र बनाने की कोशिश और परिवहन तथा दूरसंचार क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में असाधारण निवेश शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन को लेकर एकाग्रता भी इसमें मददगार है: मिसाल के तौर पर यूक्रेन संकट को लेकर कुशल प्रतिक्रिया, जलवायु परिवर्तन से निपटने की कोशिशों में लगातार अपनी बात मजबूत करना और इस सप्ताह आयोजित जी-२० शिखर बैठक में प्रभावशाली भूमिका का निर्वाह मुख्य है । इससे अनुमान लगता है कि देश जानता है कि वह क्या कर रहा है जबकि कुछ अमीर देश इस मामले में भ्रमित नजर आते हैं।अब सवाल यह है कि कई पर्यवेक्षकों के लिए वर्तमान में आशावाद निकट भविष्य तक सीमित क्यों है? इसकी वजहें जानी पहचानी हैं और उनमें भी सबसे महत्त्वपूर्ण है बेरोजगारी की ढांचागत समस्या जिससे निपटना मुश्किल है और जो सामाजिक अशांति की वजह भी है। शिक्षा और स्वास्थ्य की खराब स्थिति भी इसी के साथ जुड़ी हुई है और पोषण की कमी तो समस्या है जिसके नतीजे ठिगने और कमजोर बच्चों के रूप में नजर आ रहे हैं।ध्यान रहे ये बच्चे भविष्य के कामगार हैं।
इन तमाम कारकों के साथ एक देश अपने उभार की गति न तो बढ़ा सकता है और न ही उसे बरकरार रख सकता है। तीसरी तरह के मुद्दे भी हैं जो व्यवस्थागत निगरानी के सीमित दायरे से संबद्ध हैं। इनका काम प्राथमिक चूकों को रोकना होता है।पर्यवेक्षकों की दीर्घकालिक निराशा के लिए जिम्मेदार ऐसे मसलों को सरकार के राजनीतिक और सामाजिक लक्ष्यों से जुड़े लोग खारिज कर देते हैं। इन्हें पूरा भरोसा है कि यह भारत का दशक है क्योंकि चालू तेजी को प्रभावित करने वाले कारक अस्थायी नहीं हैं। यही कारण है कि उन्हें लगता है कि ‘उच्च मध्य आय’ (४००० डॉलर से अधिक की प्रति व्यक्ति आय जबकि फिलहाल यह २४०० डॉलर प्रति व्यक्ति है) पहुंच के दायरे में है। परंतु यह बात भी सही है कि व्यवस्था के नियंत्रण में अलग तरह से बदलाव करना होगा ताकि बेहतर संतुलन कायम किया जा सके और गति को तेज किया जा सके। ऐसा किए बिना व्यवस्थागत दिक्कत बढ़ेगी और तब हमें और अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।