भारत की आज़ादी के संघर्ष में पूर्ण सक्रिय होने के पहले ही महात्मा गांधी एक व्यक्ति से अधिक विचार के रूप में प्रसिद्ध हो गए थे। 1909 में लिखित ‘हिन्द स्वराज’ उनके राजनीतिक जीवन का घोषणा पत्र है। लगभग चालीस वर्ष की परिपक्व आयु में बीस वर्षों के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के अनुभव के आधार पर लिखी गांधी जी की “यह किताब द्वेष धर्म की जगह प्रेम धर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्म बलिदान को स्थापित करती है और पशु बल के खिलाफ टक्कर लेने के लिए आत्म बल को खड़ा करती है।” आधुनिक सभ्यता की निर्मम समीक्षा करनेवाली इस किताब में बतलाए रास्ते पर गांधी जी का विश्वास अंतिम समय तक दृढ़ रहा। आततायी ब्रिटिश शासन से अहिंसक संघर्ष की सीख देकर गांधी जी ने भारतीय जनता को निडर कर दिया था। गांधी जी के निडरता के मंत्र पर विश्वास कर भारत की किसान-मज़दूर जनता के संघर्ष में उतर पड़ने से ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिलने लगीं। गांधी ने कोई नया दर्शन नहीं दिया था।गांधी ने भारतीय परंपरा में प्रचलित मूल्यों और मान्यताओं को न सिर्फ़ नये अर्थ दिए बल्कि अपने जीवन और आचरण से सिद्ध कर दिखाया कि वे सिर्फ़ किताबी बातें नहीं हैं। अपने जीवन को सत्य के आचरण की प्रयोगशाला बना कर वे नश्वर शरीर से अमर विचार में बदल गए थे। अकारण ही नहीं महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी के बारे में कहा था कि “भविष्य की पीढ़ियों को इस बात पर विश्वास करने में मुश्किल होगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई व्यक्ति भी कभी धरती पर आया था।”
किसी व्यक्ति की हत्या की जा सकती है और पूजा भी जा सकता है। पर जो अपने नश्वर शरीर को विचारों में रूपांतरित कर चुका हो उसकी न हत्या हो सकती है न पूजा। विचारों को पाया जा सकता है और जीवन में अपनाया जा सकता है। गांधी के विचारों की प्रासंगिकता का लोहा आज पूरी दुनिया मान रही है।
यूरोप की आधुनिक सभ्यता को ‘शैतानी सभ्यता’ कह कर गांधी जी ने जिन ख़तरों की ओर आगाह किया था वे आज समूची पृथ्वी के लिए संकट का कारण बन गए हैं। गांधी जी की स्पष्ट मान्यता थी कि धरती के समस्त संसाधन मनुष्यों की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए काफ़ी हैं पर चंद लालची लोगों की हवस पूरी करने में अपर्याप्त हैं। आज धरती की समस्त संपदा पर पूरी दुनिया की आबादी के एक प्रतिशत से भी कम लोगों के अधिकार में आ जाना गांधी जी की आशंका का सच का सच हो जाना है। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा विनाश की कगार पर आ खड़ा हुआ है। आज भी गांधी के बताए रास्तों पर चल कर वहनीय विकास का ढाँचा विकसित किया जा सकता है।
गांधी का विचार अमानुषिकता के प्रतिकार का विचार है। किसी सत्ता की अमानवीयता के प्रतिकार में खड़े होनेवाले राजनीतिक आंदोलन गांधी के रास्ते से सत्ता परिवर्तन में कामयाब हो जाते हैं पर सत्ता पर काबिज होते ही सबसे पहले उन्हें गांधी के विचारों को ही हाशिये पर धकेलना होता है। जाहिर है गांधी का दर्शन सत्ता के शास्वत प्रतिपक्ष का दर्शन है। स्वाभाविक है कि सत्ता अपने करीबियों के हितों की सर्वाधिक चिंता करती है जबकि गांधी दर्शन सबसे निचले पायदान पर खड़े अंतिम जन के लिए प्रतिबद्ध है। अंत्योदय का ईमानदार प्रयास ही गांधीवाद है।
प्रो. संजीवकुमार दुबे
अधिष्ठाता,
भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
गांधीनगर